Bittergourd Advisory

खेत की तैयारी: करेला को खेत में बोने से पहले खेत को तैयार करना बहुत जरूरी है| खेत में 2 से 3 गहरी जुताइयां करने के बाद पाटा लगायें ताकि मिट्टी के ढेले टूट जाए तथा मिट्टी भूरभूरी तथा पोली हो जाए| इसके बाद सुविधा अनुसार क्यारियां और थाले बना लेने चाहिए| करेले की खेती के लिए लम्बाई में 2 मीटर तथा चौडाई 2 मीटर की क्यारियों में बांटना चाहिए| लेकिन क्यारियों के बीच में 50 सेंटीमीटर की एक नाली होनी चाहिए| क्यारियों के दोनों किनारों पर 45 सेंटीमीटर की दूरी पर बीज के लिए थाले बनाए जाने चाहिए|

मिट्टी: करेला की फसल क पूरे भारत में अनेक प्रकार की भूमि में उगाया जाता है| लेकिन इसकी अच्छी वृद्धि और खेती के लिए अच्छे जल निकास युक्त जीवांश वाली दोमट मिट्टी सर्वोत्तम होती है|
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खरपतवार नियंत्रण : बिजाई से पहले पैंडीमैथालीन 1 लीटर प्रति एकड़ या फलूक्लोरालिन 800 मि.ली. प्रति एकड़ नदीन नाशक के तौर पर डालें। प्राथमिक अवस्था में निंदाई – गुड़ाई करके खेत को खरपतवारों से मुक्त रखना चाहिए। वर्ष ऋतु में इस फसल को डंडों या मचान पर चढ़ाना चाहिए। करेले की फसल ड्रीप इरिगेशन पर भी ले सकते है।

बीज का उपचार: फसल को मिट्टी से पैदा होने वाली बीमारियों से बचाने के लिए बीज का उपचार करना बहुत जरूरी है। बिजाई से पहले बीज को 3 ग्राम थीरम या 2 ग्राम कार्बेनडाज़िम प्रति किलो बीज से उपचार करें या बुआई से पहले ट्राईकोडर्मा 2 ग्रा./कि. ग्रा. अथवा बाविस्टिन 2 ग्रा./कि.ग्रा. बीज की दर से उपचारित करें।

बुआई की विधि: बीजों को नालियों के दोनों तरफ बुआई करते हैं। नालियों की सिंचाई करके मेड़ों पर पानी की सतह के ऊपर 2-3 बीज एक स्थान पर इस प्रकार लगाये जाते हैं कि बीजों को नमी कैपिलटी मुखमेंट से प्राप्त हो। अंकुर निकल आने पर आवश्यकतानुसार छंटाई कर दी जाती है।

बुआई : 15 फरवरी से 30 फरवरी (ग्रीष्म ऋतु) तथा 15 जुलाई से 30 जुलाई (वर्षा ऋतु)

किस्में : करेला में अनेकों उन्नत और संकर किस्में उपलब्ध है| किसानों को अपने क्षेत्र की प्रचलित तथा अधिकतम पैदावार वाली किस्म का चयन करना चाहिए ताकि इसकी बाजार में मांग के अनुसार अधिकतम उपज प्राप्त की जा सके|

बीज की मात्रा : करेला बुआई के लिए बीज की मात्रा एक हेक्टेयर में लगभग 5 से 8 किलोग्राम होनी चाहिए अंकुरण क्षमता 80 से 85 प्रतिशत होना उत्तम है| 2-3 बीज 2.5-5. मि. की गहराई पर बोने चाहिए बीज को बोने से पूर्व 24 घंटे तक पानी में भिगो लेना चाहिए इससे अंकुरण जल्दी, अच्छा होता है
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सिंचाई: फसल की सिंचाई वर्षा पर आधारित है। 8-10 दिन की अन्तराल पर सिंचाई की जाती है।

पोषक तत्व की जरुरत: समय समय पर पौधे को सही मात्रा मे पोषक तत्व की जरुरत पड़ती है | जो की पौधे को बढ़वार व फुटाव प्रदान कर सके| सही पोषक तत्व की उपलब्धता से पौधे ज़्यादा हरे होगे जिसके कारण उपज मे वृधि होगी|
तना एवं फल बेधक :   यह कीट फसल को काफी नुकसान पहुंचाता है। इसके लार्वा शीर्ष पर पत्ती के जुड़े होने के स्थान पर छेद बनाकर घुस जाते हैं तथा उसे अंदर से खाते हैं जिससे टहनी का विकास रुक जाता है बाद में आगे का भाग मुरझा कर सुख जाता है।

  जैसिड्स : ये हरे रंग के कीट पत्तियोंकी निचली सतह से लगकर रस चूसते हैं। जिसके फलस्वरूप पत्तियां पीली पद जाती हैं और पौधे कमजोर हो जाते हैं।

एपीलेकना बीटल : ये कीट पौधों की प्रारंभिक अवस्था में बहतु हानि पहुंचाते हैं। ये पत्तियों को खार छलनी सदृश बना देते हैं। अधिक प्रकोप की दशा में पूरी फसल बर्बाद हो जाती है।

हरा तेला, मोयला, सफेद मक्खी और जालीदार पंख वाली बग : ये कीडे पत्तियों के नीचे या पौधे के कोमल भाग से रस चूसकर पौधों को कमजोर कर देते हैं| इससे पैदावर पर विपरीत प्रभाव पड़ता हैं|

माईट्स : ये छोटे कीट कोमल पत्तों से रस चूसते हैं तथा वहां पर सफेद स्थान बन जाते हैं| इस तरह पौधों की बढवार रूक जाती है या कम हो जाती है|

मूल ग्रन्थी सूत्र कृमि (निमेटोड): इसकी वजह से बैंगन की जड़ों पर गांठे बन जाती हैं और पौधों की बढ़वार रूक जाती है तथा पैदावार पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता हैं|
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मोजैक विषाणु रोग : यह रोग विशेषकर नई पत्तियों में चितकबरापन तथा सिकुड़न के रूप में प्रकट होता है| पत्तियाँ छोटी तथा हरी पीली हो जाती है| संक्रमित पौधे की वृद्धि रूक जाती है| इसके आक्रमण से पर्ण छोटे तथा पुष्प छोटे-छोटे पत्तियों जैसे बदले हुए दिखाई पड़ते हैं| ग्रसित पौधा बौना रह जाता है, और उसमें फलत बिल्कुल नहीं होता है|

उकठा (म्लानि) : रोग का आक्रमण पौधे की भी अवस्था मे हो सकता हे। यदि रोग का आक्रमण नये पौधे पर हुआ तो पौधे के तने का जमीन की सतह से लगा हुआ भाग विगलित हो जाता है और पौधा मर जाता है। इस रोग के प्रभाव से कभी कभी तो बीज अकंरण पूर्व ही सडकर नष्ट हो जाता है।

एंथ्राक्नोस : यह फंगस गर्म तापमान, अधिक नमी के कारण बढ़ती है। प्रभावित हिस्सों पर काले धब्बे नज़र आते हैं। धब्बे आमतौर पर गोल, पानी जैसे और काले रंग की धारियों वाले होते हैं। ज्यादा धब्बों वाले फल पकने से पहले ही झड़ जाते हैं, जिससे पैदावार पर बुरा असर पड़ता हैं।

डैम्पिंग ऑफ़ या आर्द्र गलन : यह पौधशाला का प्रमुख फफुदं जनित रोग है इसका प्रकोप दो अवस्थाओं में देखा गया है। प्रथम अवस्था में, पौधे जमीन की सतह से बाहर निकलने के पहले ही मर जाते हैं एवं द्वितीय अवस्था में, अंकुरण के बाद पौधे जमीन की सतह के पास गल कर मर जाए हैं।

पाऊडरी मिल्ड्यू : फफूंद के कारण पत्तों, तने तथा अन्य रसीले भागों पर सफेद आटे जैसे धब्बे पड़ते हैं| फल सिकुडे हुए हो जाते हैं|

डाऊनी मिल्ड्यू : फलों पर फीके कोणीय पीले भूरे धब्बे बनते हैं, जो बाद में काले हो जाते हैं तथा फिर पौधा मुरझा जाता है|
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करेला के फलों की तुडाई बीजाई के लगभग 60 से 65 दिनों के बाद आरम्भ हो जाती है| सब्जी के लिए फलों को साधारणत: उस समय तोड़ा जाता है, जब बीज कच्चे हों। यह अवस्था फल के आकार एवं रंग से मालूम की जा सकती है। जब बीज पकने की अवस्था आती हैं, तो फल पीले – पीले होकर रंग बदल लेते हैं। तुडाई 4 से 5 दिन के अन्तराल पर करना चाहिए| फलों के साथ में डंठल की लम्बाई 2 सेंटीमीटर से कम नहीं होनी चाहिए| इससे फल अधिक समय तक टिके हुए रहते हैं|
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