खेत की तैयारी:
पहली जुताई मिटटी पलटने वाले हल से करनी चाहिए, उसके बाद 3 से 4 बार हैरो या देशी हल चलाकर पाटा लगाये भूमि के प्रथम जुताई से पूर्व गोबर कि खाद सामान रूप से बिखेरनी चाहिए| यदि गोबर कि खाद उपलब्ध न हो तो खेत में पहले हरी खाद का उपयोग करना चाहिए| रोपाई करने से पूर्व सिचाई सुबिधा के अनुसार क्यारियों तथा सिचाई नालियों में विभाजित कर लेते है|
मिट्टी:
इसकी खेती अच्छे जल निकास युक्त सभी प्रकार की भूमि में की जा सकती है। बैंगन की अच्छी उपज के के लिए, बलुई दोमट से लेकर भारी मिट्टी जिसमें कार्बिनक पदार्थ की पर्याप्त मात्रा हो, उपयुक्त होती है। भूमि का पी.एच मान 5.5-6.0 की बीच होना चाहिए तथा इसमें सिंचाई का उचित प्रबंध होना आवश्यक है।
खरपतवार नियंत्रण :
बिजाई से पहले पैंडीमैथालीन 1 लीटर प्रति एकड़ या फलूक्लोरालिन 800 मि.ली. प्रति एकड़ नदीन नाशक के तौर पर डालें और बिजाई के 30 दिन बाद एक बार हाथों से गोडाई करें।
बीज का उपचार:
फसल को मिट्टी से पैदा होने वाली बीमारियों से बचाने के लिए बीज का उपचार करना बहुत जरूरी है। बिजाई से पहले बीज को 3 ग्राम थीरम या 2 ग्राम कार्बेनडाज़िम प्रति किलो बीज से उपचार करें या बुआई से पहले ट्राईकोडर्मा 2 ग्रा./कि. ग्रा. अथवा बाविस्टिन 2 ग्रा./कि.ग्रा. बीज की दर से उपचारित करें।
नर्सरी की तैयारी:
एक हैक्टेयर की पौध तैयार करने के लिये एक मीटर चौडी और तीन मीटर लम्बी करीब 15 से 20 क्यारियों की आवश्यकता होती है| बीज की 1 से 1.5 सेन्टीमीटर की गहराई पर, 3 से 5 सेन्टीमीटर के अन्तर पर कतारों में बुवाई करें और बुवाई के बाद गोबर की बारीक खाद की एक सेन्टीमीटर मोटी परत से ढक दें तथा फव्वारें से सिंचाई करें|
बुआई :
बैगन कि शरदकालीन फसल के लिए जुलाई-अगस्त में, ग्रीष्मकालीन फसल के लिए जनवरी-फरवरी में एवं वर्षाकालीन फसल के लिए अप्रैल में बीजों की बुआई की जानी चाहिए।
किस्में:
बैंगन में फलों के रंग तथा पौधों के आकार में बहुत विविधता पायी जाती है। मुख्यतः इसका फल बैंगनी, सफेद, हरे, गुलाबी एवं धारीदार रंग के होते हैं। आकार में भिन्नता के कारण इसके फल गोल, अंडाकार, लंबे एवं नाशपाती के आकार के होते हैं। स्थान के अनुसार बैंगन के रंग एवं आकार का महत्व अलग-अलग देखा गया है। किसानों को अपने क्षेत्र की प्रचलित और अधिक उपज देने वाली किस्म का उपयोग करना चाहिए तथा साथ ही किस्मों का चयन बाजार की मांग व लोकप्रियता के आधार पर करना चाहिये|
बीज की मात्रा :
एक हैक्टेयर में पौध रोपाई के लिये 400 से 500 ग्राम बीज की आवश्यकता होती है, और संकर किस्मों का 250 से 300 ग्राम प्रति हेक्टेयर बीज उपयुक्त होता है|
रोपाई का समय:
जब पौधे नर्सरी में 10 से 15 सेंटीमीटर ऊंचाई के या 30 से 40 दिन के हो जाएँ तब उन्हें सावधानी से निकाल कर तैयार खेत में शाम के समय रोपाई करें| कतार से कतार की दूरी 60 से 70 सेंटीमीटर और कतार में पौधे से पौधे की दूरी 60 सेंटीमीटर रखें|
सिंचाई:
गर्मी की ऋतु में 4 से 5 दिन की अन्तराल पर और सर्दी की ऋतु में 10 से 15 दिन के अन्तराल पर सिंचाई करनी चाहिए| वर्षा ऋतु में सिंचाई आवश्यकतानुसार करें|
पोषक तत्व की जरुरत:
समय समय पर पौधे को सही मात्रा मे पोषक तत्व की जरुरत पड़ती है | जो की पौधे को बढ़वार व फुटाव प्रदान कर सके| सही पोषक तत्व की उपलब्धता से पौधे ज़्यादा हरे होगे जिसके कारण उपज मे वृधि होगी|
तना एवं फल बेधक :
यह कीट फसल को काफी नुकसान पहुंचाता है। इसके लार्वा शीर्ष पर पत्ती के जुड़े होने के स्थान पर छेद बनाकर घुस जाते हैं तथा उसे अंदर से खाते हैं जिससे टहनी का विकास रुक जाता है बाद में आगे का भाग मुरझा कर सुख जाता है।
जैसिड्स :
ये हरे रंग के कीट पत्तियोंकी निचली सतह से लगकर रस चूसते हैं। जिसके फलस्वरूप पत्तियां पीली पद जाती हैं और पौधे कमजोर हो जाते हैं।
एपीलेकना बीटल :
ये कीट पौधों की प्रारंभिक अवस्था में बहतु हानि पहुंचाते हैं। ये पत्तियों को खार छलनी सदृश बना देते हैं। अधिक प्रकोप की दशा में पूरी फसल बर्बाद हो जाती है।
हरा तेला, मोयला, सफेद मक्खी और जालीदार पंख वाली बग :
ये कीडे पत्तियों के नीचे या पौधे के कोमल भाग से रस चूसकर पौधों को कमजोर कर देते हैं| इससे पैदावर पर विपरीत प्रभाव पड़ता हैं|
मूल ग्रन्थी सूत्र कृमि (निमेटोड):
इसकी वजह से बैंगन की जड़ों पर गांठे बन जाती हैं और पौधों की बढ़वार रूक जाती है तथा पैदावार पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता हैं|
रोपाई 30 -60 दिन रोपाई के बाद(बीमारियां और रोकथाम)
डैम्पिंग ऑफ़ या आर्द्र गलन :
यह पौधशाला का प्रमुख फफुदं जनित रोग है इसका प्रकोप दो अवस्थाओं में देखा गया है। प्रथम अवस्था में, पौधे जमीन की सतह से बाहर निकलने के पहले ही मर जाते हैं एवं द्वितीय अवस्था में, अंकुरण के बाद पौधे जमीन की सतह के पास गल कर मर जाए हैं।
फल सड़न :
यह फफून्द के कारण होने वाला एक बीज जनित रोग है। प्रभावित पत्तियों पर प्रारंभ में छोटे-छोटे गोल भूरे धब्बे बन जाते हैं तथा बाद में अनियमित आकार के काले धब्बे पत्तियों के किनारों पर दिखाई देते हैं। रोगी पत्तियां पीली पड़कर सूख जाती है। फलों पर धूल कणों के समान भूरी रचनाएं दिखाई पड़ती हैं जो बाद में बढ़कर काले धब्बों के रूप में दिखाई देने लगती है।
जीवाणु –जनित मुरझा रोग :
यह सोलेनेसी परिवार की सब्जियों की प्रमुख बीमारी है। इसके प्रकोप से पौधे मर जाते हैं।
झुलसा रोग :
इस रोग के प्रकोप से पत्तियों पर विभिन्न आकार के भूरे से गहरे भूरे रंग के धब्बे बन जाते हैं| धब्बों में छल्लेनुमा धारियां दिखने लगती हैं|
बैंगन के फलों कि मुलायम व् चमकदार अवस्था में तुड़ाई करनी चाहिए। तुड़ाई में देरी करने से फल सख्त व बदरंग हो जाते हैं साथ ही उनमें बीज का विकास हो जाता है, जिससे बाजार में उत्पाद का उचित मूल्य नहीं मिलता।