सफेद लट:
इस कीट की लटें पौधों की जड़़ों को खाकर नुकसान पहुँचाती हैं तथा इससे फसल को काफी हानि होती है।
सफेद मक्खी, पर्णजीवी (थ्रिप्स) हरा तेला व मोयला:
ये कीट पौधों की पत्तियों व कोमल शाखाओं का रस चूसकर कमजोर कर देते हैं। इनके प्रकोप से उत्पादन घट जाता है।
चेपा :
यह कीड़ा आमतौर पर सर्दियों के महीने और फसल के पकने पर नुकसान करता है। यह पत्ते का रस चूसता है। यह शहद जैसा पदार्थ छोड़ता है। जिससे काले रंग की फंगस पौधे के भागों कैलिकस और फलियों आदि पर बन जाती है और उत्पाद की क्वालिटी कम हो जाती है।
सफेद मक्खी :
यह पौधों का रस चूसती है और उन्हें कमज़ोर कर देती है। यह शहद जैसा पदार्थ छोड़ते हैं, जिससे पत्तों के ऊपर दानेदार काले रंग की फंगस जम जाती है। यह पत्ता मरोड़ रोग को फैलाने में मदद करते हैं।
मूल ग्रंथि सूत्रकृमि :
इसके प्रकोप से पौधों की जड़ों में गाँठें बन जाती हैं तथा पौधे पीले पड़ जाते हैं। पौधों की बढ़वार रुक जाती है जिससे पैदावार में कमी आ जाती है।
फल छेदक :
इसकी सुंडियां फल के पत्ते खाती हैं फिर फल में दाखिल होकर पैदावार का भारी नुकसान करती हैं।
उखेड़ा रोग :
यह बीमारी मिट्टी में ज्यादा नमी और घटिया निकास के कारण फैलती है। यह मिट्टी से पैदा होने वाली बीमारी है। इससे तना मुरझा जाता है। यह बीमारी नए पौधों को अंकुरन से पहले ही नष्ट कर देती है। यदि यह बीमारी नर्सरी में आ जाये तो सारे पौधे नष्ट हो जाते हैं।
एंथ्राक्नोस :
यह बीमारी कोलैटोट्रीचम पीपेराटम और सी कैपसिसी नाम की फंगस के कारण होती है। यह फंगस गर्म तापमान, अधिक नमी के कारण बढ़ती है। प्रभावित हिस्सों पर काले धब्बे नज़र आते हैं। धब्बे आमतौर पर गोल, पानी जैसे और काले रंग की धारियों वाले होते हैं। ज्यादा धब्बों वाले फल पकने से पहले ही झड़ जाते हैं, जिससे पैदावार पर बुरा असर पड़ता हैं।
चितकबरा रोग :
इस बीमारी से पौधे पर हल्के हरे रंग के धब्बे पड़ जाते हैं। शुरूआत में पौधे का विकास रूक जाता है। पत्तों और फलों पर पीले, गहरे पीले और पीले-सफेद गोल धब्बे बन जाते हैं। बिजाई के लिए हमेशा तंदरूस्त और निरोगी पौधों का ही प्रयोग करें।
भूरे धब्बों का रोग :
यह रोग आमतौर पर वर्षा के मौसम में फैलता है। नए पत्तों और पील-हरे और पुराने पत्तों पर गहरे और पानी जैसे धब्बे पड़ जाते हैं। अधिक प्रभावित पत्ते पीले पड़ जाते हैं और झड़ जाते हैं।
आर्द्र गलन:
इस रोग का प्रकोप पौधे की छोटी अवस्था में होता है। जमीन की सतह पर स्थित तने का भाग काला पड़ कर कमजोर हो जाता है तथा नन्हें पौधे गिरकर मरने लगते हैं।
पर्णकुंचन व मोजेक विषाणु रोग :
पर्णकुंचन रोग के प्रकोप से पत्ते सिकुड़कर छोटे रह जाते हैं व झुर्रियाँ पड़ जाती हैं। मोजैक रोग के कारण पत्तियों पर गहरे व हल्का पीलापन लिये हुए धब्बे बन जाते हैं। इस बीमारी का नर्सरी की अवस्था में भी प्रकोप होता है|
मिर्चों की तुड़ाई हरा रंग आने पर करें या फिर पकने के लिए पौधे पर ही रहने दें। मिर्चों का पकने के बाद वाला रंग किस्म पर निर्भर करता है।
नर्सरी 0 दिन से पहले (खेत की तैयारी/मिट्टी)
खेत की तैयारी:
खेत को तैयार करने के लिए 2-3 बार जोताई करें और प्रत्येक जोताई के बाद कंकड़ों को तोड़ें। बिजाई से 15-20 दिन पहले रूड़ी की खाद 150-200 क्विंटल प्रति एकड़ डालकर मिट्टी में अच्छी तरह मिला दें। खेत में 60 सैं.मी. के फासले पर मेंड़ और खालियां बनाएं।
मिट्टी:
मिर्च हल्की से भारी हर तरह की मिट्टी में उगाई जा सकती है। अच्छे विकास के लिए हल्की उपजाऊ और पानी के अच्छे निकास वाली ज़मीन जिस में नमी हो, इसके लिए अनुकूल होती है। हल्की ज़मीनें भारी ज़मीनों के मुकाबले अच्छी क्वालिटी की पैदावार देती हैं। मिर्च के अच्छे विकास के लिए ज़मीन की पी एच 6-7 अनुकूल है।
खरपतवार नियंत्रण :
बिजाई से पहले पैंडीमैथालीन 1 लीटर प्रति एकड़ या फलूक्लोरालिन 800 मि.ली. प्रति एकड़ नदीन नाशक के तौर पर डालें और बिजाई के 30 दिन बाद एक बार हाथों से गोडाई करें। नदीनों की मात्रा के अनुसार दोबारा गोडाई करें और खेत को नदीन मुक्त रखें।
नर्सरी की तैयारी :
सबसे पहले नर्सरी में बीजों की बुवाई कर पौध तैयार की जाती है। खरीफ की फसल हेतु मई-जून में तथा गर्मी की फसल हेतु फरवरी-मार्च में नर्सरी में बीजों की बुवाई करें।
बुआई :
मैदानी और पहाड़ी, दोनो ही इलाकों में मिर्च बोने के लिए सबसे अच्छा समय अप्रैल-जून तक का होता है. बडे. फलों वाली क़िस्में मैदानी में अगस्त से सितम्बर तक या उससे पूर्व जून-जुलाई में भी बोई जा सकती है. पहाडों में इसे अप्रैल से मई के अंत तक बोया जा सकता है.
किस्में:
अपने क्षेत्र की प्रचलित तथा अधिक उत्पादन वाली किस्म के चयन के साथ-साथ फसल पकाव अवधि का भी विशेष ध्यान रखना चाहिए| ताकि किसान अपनी इच्छित पैदावार प्राप्त कर सके|
बीज की मात्रा :
हाइब्रिड किस्मों के लिए बीज की मात्रा 80-100 ग्राम और बाकी किस्मों के लिए 200 ग्राम प्रति एकड़ होनी चाहिए।
बीज का उपचार:
फसल को मिट्टी से पैदा होने वाली बीमारियों से बचाने के लिए बीज का उपचार करना बहुत जरूरी है। बिजाई से पहले बीज को 3 ग्राम थीरम या 2 ग्राम कार्बेनडाज़िम प्रति किलो बीज से उपचार करें।
तापमान :
बीजों का अच्छा अंकुरण 18-30 डिग्री से. ग्रे. तापामन पर होता है. यदि पौधें में फल बनते समय खेत में नमी की कमी हो जाती है, तो फलियाँ और छोटे फल नीचे गिरने लगते हैं. मिर्च के फूल व फल आने के लिए सबसे उपयुक्त तापमान 25-30 डिग्री से. ग्रे. है.
रोपाई:
नर्सरी में बुवाई के 4-5 सप्ताह बाद पौध रोपने योग्य हो जाती है। इस समय इसकी पौध की रोपाई खेत में करें। गर्मी की फसल में कतार से कतार की दूरी 60 सेंमी. तथा पौधों के बीच की दूरी 30 से 45 सेंमी. रखें। खरीफ की फसल के लिए कतार से कतार की दूरी 45 सेंमी. और पौध से पौध की दूरी 30 से 45 सेंमी. रखें। रोपाई शाम के समय करें और रोपाई के तुरंत बाद सिंचाई कर दें।
सिंचाई:
पहली सिंचाई पौध प्रतिरोपण के तुरन्त बाद की जाती है. बाद में गर्म मौसम में हर 5-7 दिन तथा सर्दी में 10-12 दिनों के अंतराल पर फ़सल को सींचा जाता है.
पोषक तत्व की जरुरत:
समय समय पर पौधे को सही मात्रा मे पोषक तत्व की जरुरत पड़ती है | जो की पौधे को बढ़वार व फुटाव प्रदान कर सके| सही पोषक तत्व की उपलब्धता से पौधे ज़्यादा हरे होगे जिसके कारण उपज मे वृधि होगी|