Cotton Advisory

सिंचाई :  जहां उचित मात्रा में पानी उपलब्ध है पहली सिंचाई गेहूँ में मुख्य जड निकलने पर करनी चाहिए जो समय पर बोए गए गेहूँ में 20-25 दिन बाद निकलती है। यदि गेहूँ देर में बोया गया है तो यह अवस्था 25-30 दिन बाद आती है। दूसरी सिंचाई गेहूँ में कल्ले निकलते समय करनी चाहिए। यह अवस्था गेहूँ बोने के 40-45 दिन बाद आती है। तीसरी सिंचाई गेहूँ में गांठं बनने के बाद करनी चाहिए। यह अवस्था गेहूँ बोने के 65-70 दिन बाद आती है। चौथी सिंचाई गेहूँ में फूल आते समय करनी चाहिए। यह अवस्था गेहूँ बोने के 90-95 दिन बाद आती है। पाँचवी सिंचाई गेहूँ के दानों में दूध पडते समय करनी चाहिए। यह अवस्था बोने के 105-110 दिन बाद आती है। छठी सिंचाई गेहूँ के दानों में आटा बनते समय करनी चाहिए। यह अवस्था बोने के 120-125 दिन बाद आती है। इस समय सिंचाई करते समय इस बात का ध्यान अवश्य रखना चाहिए कि हवा तेज न चल रही हो अन्यथा फसल गिरने का अंदेशा बना रहता है।

रोग के लक्षणों में सर्वप्रथम निचली पत्तियों पर छोटे-छोटे, अण्डाकार, भूरे रंग के और अनियमित रूप से बिखरे हुए धब्बे आपस में मिलकर पत्ती का अधिकांश भाग ढक देते हैं|

शुरुआती बीमारिया और रोकथाम: समय समय पर पौधे को सही मात्रा मे पोषक तत्व की जरुरत पड़ती है | जो की पौधे को बढ़वार व फुटाव प्रदान कर सके| सही पोषक तत्व की उपलब्धता से पौधे ज़्यादा हरे होगे जिसके कारण फलिया ज्यादा बनेगी और उपज मे वृधि होगी|

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खड़ी फसल में बहुत से रोग लगते हैं,जैसे अल्टरनेरिया, गेरुई या रतुआ एवं ब्लाइट का प्रकोप होता है जिससे भारी नुकसान हो जाता है इसमे निम्न प्रकार के रोग और लगते हैं जैसे काली गेरुई, भूरी गेरुई, पीली गेरुई सेंहू, कण्डुआ, स्टाम्प ब्लाच, करनालबंट इसमें मुख्य रूप से झुलसा रोग लगता है पत्तियों पर कुछ पीले भूरे रंग के लिए हुए धब्बे दिखाई देते हैं, ये बाद में किनारे पर कत्थई भूरे रंग के तथा बीच में हल्के भूरे रंग के हो जाते हैं

पॉड बोरर: युवा लार्वा पत्तियों पर कुछ समय रहकर उन्हें खाता है और फिर बलियो पर हमला करता है. बलियो को अंदर पूरी तरह से खोखला कर देता है|

काला तना रतुआ: गेहूं की फसल का यह रोग प्रभावित पौधों के तने, पत्तियों और डंठलों के ऊपर लाल भूरे रंग के छोटे-छोटे धब्बे बना देता हैं, जो धीरे-धीरे बड़े होकर आपस में मिलकर बड़े-बड़े धब्बे बन जाते हैं एवं इनका रंग गहरा भूरा तथा बाद में काला हो जाता है| रोग से प्रभावित पौधों की ऊँचाई घट जाती है, बालियों में दाने कम, सिकुड़े हुए एवं भार में हल्के उत्पन्न होते हैं|

करनाल बंट: करनाल बंट को गेहूं का कैंसर भी कहा जाता है| रोग के लक्षण बाली में दाने बनने के बाद ही दिखायी पड़ते हैं| संक्रमित बाली के कुछ दाने आंशिक रूप से काले चूर्ण में बदल जाते हैं|

गेगला या सेहूँ रोग: रोगी पौधों की पत्तियां ऐंठकर झुर्रीदार और विकृत हो जाती हैं एवं तना लम्बा हो जाता है| रोग से प्रभावित कुछ पत्तियों पर छोटी, गोलाकार उभरी हुई पिटिकायें बनती हैं और रोगी पौधे से निकली बालियां छोटी, मोटी और अधिक दिनों तक हरी बनी रहती हैं|

  पर्णीय झुलसा या अंगमारी: रोग के लक्षणों में सर्वप्रथम निचली पत्तियों पर छोटे-छोटे, अण्डाकार, भूरे रंग के और अनियमित रूप से बिखरे हुए धब्बे आपस में मिलकर पत्ती का अधिकांश भाग ढक देते हैं|

भूरा रतुआ: प्रारम्भ में गेहूं की फसल के इस रोग के लक्षण पत्तियों की उपरी सतह पर अनियमित रूप से बिखरे हुए छोटे गोलाकार और हल्के नारंगी रंग के धब्बों के रूप में प्रकट होते हैं| बाद में धब्बे पत्तियों की दोनों सतहों पर बन जाते हैं| रोग ग्रसित पौधे छोटे रह जाते हैं, बालियों में दाने कम और सिकुड़े हुए बनते हैं|

पीला रतुआ या धारीदार किट्ट: रोग के लक्षण पत्तियों पर पिन के सिर जैसे छोटे-छोटे, अण्डाकार, चमकीले पीले रंग के धब्बे के रूप में दिखाई देते हैं, जो पत्ती की शिराओं के बीच में पंक्तियों में होने से पीले रंग की धारी बनाते हैं| बाद में पत्ती की बाहरी त्वचा के नीचे काले रंग के रेखाओं के रूप में बनते हैं, जो चपटी काली पपड़ी द्वारा ढके रहते हैं| रोग ग्रसित पौधों की पत्तियां सूख जाती हैं|

हिल अथवा पहाड़ी बंट: रोग से प्रभावित पौधे छोटे रह जाते हैं, समय से पूर्व ही पक जाते हैं| रोगी पौधे की बालियाँ संकीर्ण और लम्बी निकलती हैं, जो नीला-हरा रंग लिए होती हैं| बाली में दानों के स्थान पर काले रंग का चूर्ण भर जाता है और रोगी बालियों को दबाने पर सड़ी मछली जैसी दुर्गन्ध आती है|

चूर्णिल आसिता: भावित पौधे की पत्तियों पर भूरे सफेद रंग के चूर्ण के ढेर दिखायी देते हैं| रोग की उग्र अवस्था में पर्णछंद, तना आदि भी भूरे-सफेद चूर्ण से ढक जाते हैं| रोग ग्रसित पौधों द्वारा दाने छोटे और सिकुड़े हुए उत्पन्न होते हैं|
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एफिड्स: अन्य एफिड्स की तरह, nymphs और वयस्कों पौधों से विशेष रूप से पौधे को चूसते है और साथ ही बलियो तक पहुंच जाते है| वे ठंड और बादल मौसम के दौरान बड़ी संख्या में युवा पत्तियों या बलियो पर दिखाई देते हैं|

आर्मी वर्म, (सेना कीड़ा / कट कीड़ा): प्राथमिक लक्षण पौधे का पतलापन है| पत्तियों पर लार्वा, सबसे पहले किनारों से काटना सुरु करते हुए अन्य भागो को भी प्रभावित करता है| इसका प्रभाव बहुत विनाशकारी हो सकता है; लार्वा पौधे पर चढ़कर उसकी बाली की गर्दन तोड़ सकता है|

शूट फ्लाई: इसके द्वारा पौधों को काफी नुकसान होता है| ये बलियो को शुरुआती अवस्था में हानि पहुंचाता है

गेहूं थ्रिप्स: ये आमतौर पर पट्टी के म्यान (शीत) को संक्रमित करते हैं, साथ ही तना को भोजन बना लेते है|
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फसल पकते ही बिना प्रतीक्षा किये हुए कटाई करके तुरंत ही मड़ाई कर दाना निकाल लेना चाहिए, और भूसा व दाना यथा स्थान पर रखना चाहिए, अत्यधिक क्षेत्री वाली फसल कि कटाई कम्बाईन से करनी चाहिए इसमे कटाई व मड़ाई एक साथ ही जाती है जब कम्बाईन से कटाई कि जाती है।

मौसम का बिना इंतजार किये हुए उपज को बखारी या बोरो में भर कर साफ सुथरे स्थान पर सुरक्षित कर सूखी नीम कि पत्ती का बिछावन डालकर करना चहिए या रसायन का भी प्रयोग करना चाहिए।
मिट्टी: चिकनी मिट्टी या नहरी मिट्टी, जो कि सही मात्रा में पानी को सोख सके, अच्छी मानी जाती है। भारी मिट्टी वाले सूखे क्षेत्र, जिनमें पानी के निकास का पूरा प्रबंध हो, भी इसकी खेती के लिए अच्छे माने जाते हैं।

ज़मीन की तैयारी: पिछली फसल की कटाई के बाद खेत की अच्छे तरीके से ट्रैक्टर की मदद से जोताई की जानी चाहिए। खेत को आमतौर पर ट्रैक्टर के साथ तवियां जोड़कर जोता जाता है और  उसके बाद दो या तीन बार हल से जोताई की जाती है।खेत की जोताई शाम के समय की जानी चाहिए और रोपाई की गई ज़मीन को पूरी रात खुला छोड़ देना चाहिए ताकि वह ओस की बूंदों से नमी सोख सके।

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बुवाई का समय: गेहूँ की खेती के लिए समशीतोषण जलवायु की आवश्यकता होती है, इसकी खेती के लिए अनुकूल तापमान बुवाई के समय 20-25 डिग्री सेंटीग्रेट उपयुक्त माना जाता है, गेहूँ की खेती मुख्यत सिंचाई पर आधारित होती है गेहूँ की खेती के लिए दोमट भूमि सर्वोत्तम मानी जाती है, लेकिन इसकी खेती बलुई दोमट,भारी दोमट, मटियार तथा मार एवं कावर भूमि में की जा सकती है।

गेहूँ की बुवाई समय से एवं पर्याप्त नमी पर करनी चाहिए अंन्यथा उपज में कमी हो जाती है। जैसे-जैसे बुवाई में बिलम्ब होता है वैसे-वैसे पैदावार में गिरावट आती जाती है, गेहूँ की बुवाई सीड्रिल से करनी चाहिए

सामान्यत: गेहूं को 15 से 23 सेंटीमीटर की दूरी पर पंक्तियों में बोया जाता है| पंक्तियों की दूरी मिटटी की दशा, सिंचाईयों की उपलब्धता तथा बोने के समय पर निर्भर करती है| सिंचित एवं समय से बोने हेतु पंक्तियों की दूरी 23 सेंटीमीटर रखनी चाहिए| देरी से बोने पर और ऊसर भूमियों में पंक्तियों की दूरी 15 से 18 सेंटीमीटर रखनी चाहिए|

गेहूँकि बीजदर लाइन से बुवाई करने पर 100 कि०ग्रा० प्रति हैक्टर तथा मोटा दाना 125 कि०ग्रा० प्रति हैक्टर तथा छिड़काव से बुवाई कि दशा से 125 कि०ग्रा० सामान्य तथा मोटा दाना 150 कि०ग्रा० प्रति हैक्टर कि दर से प्रयोग करते हैं, बुवाई के पहले बीजशोधन अवश्य करना चाहिए बीजशोधन के लिए बाविस्टिन, काबेन्डाजिम कि 2 ग्राम मात्रा प्रति कि०ग्रा० कि दर से बीज शोधित करके ही बीज की बुवाई करनी चाहिए।

उर्वरक एवं खाद: किसान भाइयों उर्वरकों का प्रयोग मृदा परीक्षण के आधार पर करना चाहिए, गेहूँ की अच्छी उपज के लिए खरीफ की फसल के बाद भूमि में 150 कि०ग्रा० नत्रजन, 60 कि०ग्रा० फास्फोरस, तथा 40 कि०ग्रा० पोटाश प्रति हैक्टर तथा देर से बुवाई करने पर 80 कि०ग्रा० नत्रजन, 60 कि०ग्रा० फास्फोरस, तथा 40 कि०ग्रा० पोटाश, अच्छी उपज के लिए 60 कुंतल प्रति हैक्टर सड़ी गोबर की खाद का प्रयोग करना चाहिए।

प्रसिद्ध किस्में : गेहूँ की अधिक उपज लेने के लिए अपने क्षेत्र के लिए अनुमोदित उन्नत किस्म का चुनाव कीजिए।  अच्छी उपज के लिए शुध्द प्रमाणित बीज उगाना चाहिए। दवा न मिली हो तो अवश्य मिला लें। खेत में पौधों की उचित संख्या के लिए आवश्यक है कि गेहूँ का जमाव कम से कम 85 प्रतिशत हो।

दीमक: बुवाई के तुरंत बाद फसल को नुकसान पहुंचाएं और कभी-कभी परिपक्वता के पास. वे जड़ें, बढ़ती पौधों के स्टेम, सेलूलोज़ पर पौधों के खिलाने के मरे हुए ऊतकों पर भी फ़ीड करते हैं. क्षतिग्रस्त पौधों को पूरी तरह से सूख जाता है और आसानी से बाहर खींच लिया जाता है

खरपतवार नियंत्रण: गेंहू की फसल के साथ अनेको खरपतवार जिनमें गोयला, चील, प्याजी, मोरवा, गुल्ली डन्डा व जंगली जई इत्यादि उगते है और पोषक तत्व, नमी व स्थान के लिए प्रतिस्पर्धा कर फसल उत्पादन को काफी कम कर देते है| अधिक पैदावार प्राप्त करने के लिए उचित खरपतवार नियंत्रण उचित समय पर करना बहुत ही आवश्यक है|

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